प्रयागराज का इतिहास
प्रयागराज अपने आप में केवल गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अध्यात्म, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है।
कुंभ मेला, जो हर बारहवें वर्ष आयोजित होता है, न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह ऐतिहासिक मंथन की भी याद दिलाता है। इस महापर्व के दौरान संत-महात्मा और विद्वान जो उपदेश देते हैं, वह भी मानव कल्याण के लिए किए जाने वाले गहरे चिंतन और मंथन का ही एक रूप है।
इतिहास यह भी दर्शाता है कि जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम को एक जन-आंदोलन का स्वरूप देने की आवश्यकता पड़ी, तब इस विचार-मंथन का केंद्र भी प्रयागराज ही बना। यहीं स्थित स्वराज भवन और आनंद भवन में महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं ने बैठकर राष्ट्रीय आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए रणनीतियाँ बनाई। इस शहर ने स्वतंत्रता संग्राम के कई महत्वपूर्ण निर्णयों को जन्म दिया और भारत की आज़ादी की राह को प्रशस्त किया।
मुस्लिम शासन के आगमन के बाद, 1193 ईस्वी में मोहम्मद गौरी ने इस नगर को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इसके बाद, दिल्ली के गुलाम वंश से मुगलों ने सत्ता संभाली और प्रयाग पुनः महत्व प्राप्त करने लगा।
प्रयाग की सामरिक स्थिति को देखते हुए, जो दोआब या "हिंदुस्तान" क्षेत्र में स्थित था और प्रमुख नदियों के संगम पर था, जहाँ से नौवहन की अपार संभावनाएँ थीं, अकबर ने 1575 ईस्वी में यहाँ एक भव्य किला बनवाया और नगर का नाम बदलकर "इलाहाबाद" रख दिया। अकबर का यह किला उसके सबसे विशाल किलों में से एक था। इसमें अशोक स्तंभ और कुछ मंदिर स्थित हैं, लेकिन यह मुख्य रूप से एक सैन्य छावनी था। इलाहाबाद के दक्षिण-पश्चिम छोर पर खुसरोबाग स्थित है, जिसमें तीन मकबरे हैं, जिनमें जहाँगीर की पहली पत्नी शाह बेगम का मकबरा भी शामिल है।
यहीं से मुगल शहजादा सलीम (जो बाद में सम्राट जहाँगीर बना) ने अपने पिता, मुगल सम्राट अकबर, के खिलाफ विद्रोह किया था। 1602 ईस्वी में, सलीम ने अकबर के किले में एक समानांतर दरबार स्थापित किया और सम्राट के आगरा जाने के आदेश की अवहेलना की। हालांकि, 1605 ईस्वी में अपनी मृत्यु से पहले, अकबर ने सलीम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
ब्रिटिश शासन लागू होने से पहले, इलाहाबाद पर मराठों के आक्रमणों का प्रभाव पड़ा, लेकिन मराठों ने यहाँ 18वीं शताब्दी में कुछ सुंदर मंदिर भी बनवाए, जो अपनी जटिल वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं।
1765 ईस्वी में, बक्सर के युद्ध में अवध के नवाब और मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की संयुक्त सेना ब्रिटिशों से पराजित हुई। हालाँकि ब्रिटिशों ने इन राज्यों पर कब्जा नहीं किया, लेकिन उन्होंने प्रयाग किले में अपनी छावनी स्थापित कर ली, क्योंकि वे इसकी रणनीतिक स्थिति को अच्छी तरह समझते थे। बाद में, गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने इलाहाबाद को शाह आलम से लेकर अवध को सौंप दिया, यह आरोप लगाते हुए कि सम्राट मराठों के प्रभाव में आ गया था।
1857 के विद्रोह के दौरान, प्रयागराज में ब्रिटिश सेना की संख्या बेहद कम थी। इस मौके का फायदा उठाकर, क्रांतिकारियों ने शहर को अपने कब्जे में ले लिया। इसी दौरान मौलवी लियाकत अली ने विद्रोह का झंडा फहराया और 1857 की क्रांति के अग्रदूतों में शामिल हुए।
विद्रोह के बाद, ब्रिटिश शासन ने प्रयागराज को एक प्रशासनिक केंद्र में बदल दिया। यहाँ हाई कोर्ट, पुलिस मुख्यालय और लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई, जिससे यह शहर प्रशासनिक रूप से और भी महत्वपूर्ण बन गया।
प्रयागराज और स्वतंत्रता संग्राम
1888 में, प्रयागराज ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चौथे अधिवेशन की मेजबानी की, जिससे यह राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। 20वीं सदी की शुरुआत में, प्रयागराज क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया। सुंदरलाल के कर्मयोगी कार्यालय (चौक में स्थित) ने कई युवाओं में देशभक्ति की भावना भरी। इसी दौरान, नित्यानंद चटर्जी ने ब्रिटिश क्लब पर पहला बम फेंककर इतिहास रच दिया।
1931 में, एल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आजाद पार्क) में महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने ब्रिटिश पुलिस से घिरने पर आत्मबलिदान कर दिया, लेकिन अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।
नेहरू परिवार और राजनीतिक गतिविधियाँ
प्रयागराज स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों का मुख्य केंद्र था। आनंद भवन और स्वराज भवन में कई महत्वपूर्ण राजनीतिक बैठकें होती थीं। पुरुषोत्तम दास टंडन, बिशंभर नाथ पांडे और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं ने सत्याग्रह आंदोलनों का नेतृत्व किया और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के साथ जेल गए।
स्वतंत्रता के बाद, प्रयागराज ने कई प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं को जन्म दिया, जिनमें शामिल हैं:
पंडित जवाहरलाल नेहरू – भारत के पहले प्रधानमंत्री
लाल बहादुर शास्त्री – "जय जवान, जय किसान" का नारा देने वाले नेता
के. एन. काटजू, मुजफ्फर हसन और मंगला प्रसाद – स्वतंत्र भारत के केंद्रीय मंत्री
प्रधानमंत्रियों की जन्मभूमि
प्रयागराज को यह विशेष गौरव प्राप्त है कि यह कई प्रधानमंत्रियों की जन्मभूमि और कर्मभूमि रहा है:
पंडित जवाहरलाल नेहरू (यहीं जन्मे, आनंद भवन अब एक संग्रहालय)
इंदिरा गांधी (प्रयागराज में जन्मीं)
लाल बहादुर शास्त्री (शहर से गहरा नाता)
विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर, जो स्वतंत्र भारत की राजनीति में अहम भूमिका निभा चुके हैं।
पाकिस्तान के विचार की शुरुआत
29 दिसंबर 1930 को, अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के अधिवेशन में अल्लामा मुहम्मद इक़बाल ने पहली बार एक अलग मुस्लिम राष्ट्र (पाकिस्तान) का विचार प्रस्तुत किया। यह ऐतिहासिक क्षण प्रयागराज की धरती पर घटित हुआ।
क्रांति की ज्वाला से लेकर राजनीतिक नेतृत्व तक, प्रयागराज ने भारत के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह शहर न केवल स्वतंत्रता संग्राम का साक्षी रहा, बल्कि आज भी भारतीय राजनीति और संस्कृति में अपनी मजबूत पहचान बनाए हुए है।
पुराणों में वर्णन मिलता है कि ययाति प्रयाग से निकलकर सप्त सिंधु क्षेत्र को जीत लिया। उनके पाँच पुत्र - यदु, द्रुह्यु, पुरु, अनु और तुर्वसु - ऋग्वेद के प्रमुख जनजातियों के रूप में स्थापित हुए।
जब आर्यों ने सबसे पहले उस भूमि में बसना शुरू किया जिसे उन्होंने आर्यावर्त या मध्यदेश कहा, तो प्रयाग या कौशांबी उनके क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। वत्स (जो प्रारंभिक इंडो-आर्यों की एक शाखा थी) हस्तिनापुर (जो वर्तमान दिल्ली के निकट स्थित था) के शासक थे और उन्होंने वर्तमान प्रयाग के पास कौशांबी नगर की स्थापना की। जब हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो गया, तो उन्होंने अपनी राजधानी कौशांबी स्थानांतरित कर दी।
रामायण काल में, प्रयाग कुछ ऋषियों की कुटियों का समूह था, जहाँ पवित्र नदियों का संगम होता था, और अधिकांश वत्स क्षेत्र घने जंगलों से ढका हुआ था। रामायण के प्रमुख पात्र भगवान राम ने कुछ समय यहाँ बिताया था, जब वे ऋषि भारद्वाज के आश्रम में ठहरे थे, और फिर पास के चित्रकूट की ओर बढ़े थे।
आगामी युगों में दोआब क्षेत्र, जिसमें प्रयाग भी शामिल था, कई साम्राज्यों और राजवंशों के अधीन रहा। यह पहले मौर्य और गुप्त साम्राज्यों का हिस्सा बना, फिर पश्चिम के कुषाण साम्राज्य के अंतर्गत आया, और बाद में स्थानीय कन्नौज साम्राज्य का भाग बना, जो अत्यंत शक्तिशाली हुआ।
प्रयाग में खुदाई के दौरान प्राप्त वस्तुओं से यह प्रमाण मिलता है कि यह नगर पहली शताब्दी ईस्वी में कुषाण साम्राज्य का हिस्सा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग, जिन्होंने हर्षवर्धन के शासनकाल (607-647 ईस्वी) के दौरान भारत की यात्रा की थी, ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उन्होंने 643 ईस्वी में प्रयाग का दौरा किया था।






प्रयागराज का ऐतिहासिक योगदान भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में गहरा प्रभाव छोड़ता है। यह शहर न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसने स्वतंत्रता संग्राम, शिक्षा, साहित्य और राजनीति में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। त्रिवेणी संगम के धार्मिक महत्व से लेकर, यहाँ की धरती पर स्वतंत्रता संग्राम के कई अहम निर्णयों का होना, प्रयागराज को भारतीय इतिहास का एक केंद्र बनाता है।
स्वराज भवन और आनंद भवन जैसे ऐतिहासिक स्थल, जहाँ महात्मा गांधी और पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीतियाँ बनाई, इस शहर की राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्व को उजागर करते हैं। इसके अलावा, प्रयागराज का साहित्यिक और शैक्षिक योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण है, जहाँ से कई प्रमुख साहित्यकारों और विचारकों ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को नई दिशा दी।
इस प्रकार, प्रयागराज का ऐतिहासिक महत्व केवल एक स्थल के रूप में नहीं, बल्कि यह भारतीय समाज के हर पहलू में परिवर्तन और प्रेरणा का एक केंद्र बनकर उभरा है। यह शहर सदैव भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहेगा।


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प्रयागराज का ऐतिहासिक योगदान भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों में गहरा प्रभाव छोड़ता है।







